Ghazal By Ravi Parashar सूरज रोज़ निकलता है
Ghazal By Ravi Parashar सूरज रोज़ निकलता है

सूरज रोज़ निकलता है,
और रोज़ ही ढलता है।
भांग कुएं में नहीं, यहां,
कुआं भांग में डलता है।
कैसे पहचानूं उसको,
चेहरा रोज़ बदलता है।
ख़ुद तो खोटा ही होगा,
सिक्का जिसका चलता है।
है बच्चा मन का सच्चा,
लेकिन बहुत मचलता है।
कितने दिल हिल जाते हैं,
सिक्का एक उछलता है।
धोखा देना या खाना,
ये तो यारो चलता है।